लेखक : सुभाष शाह की कलम से…
भारत जैसे महान लोकतंत्र में, जहाँ जनता सर्वोच्च सत्ता की धारक मानी जाती है, वहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि — राजतंत्र की प्रतीकात्मक वस्तुओं और परंपराओं को संसद जैसे लोकतांत्रिक संस्थान में स्थान क्यों दिया जा रहा है? क्या यह संवैधानिक मूल्यों की भावना के विपरीत नहीं है?
राजतंत्र और लोकतंत्र — ये दोनों शासन प्रणालियाँ केवल सत्ता के ढाँचे में नहीं, बल्कि अपने मूल संस्कारों और सांस्कृतिक दृष्टिकोणों में भी एक-दूसरे से भिन्न हैं।
राजतंत्र में सत्ता का स्रोत ईश्वर, वंश या जन्म होता है, जबकि लोकतंत्र में यह जनता की संप्रभुता से आता है।
राजा शासक होता है, जबकि लोकतंत्र में निर्वाचित प्रतिनिधि जनसेवक होता है।
ऐसे में जब संसद भवन में ‘सेंगोल’ जैसे प्रतीकों को स्थापित किया जाता है — जिनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि राजाओं के सत्ता हस्तांतरण से जुड़ी रही है — तो यह प्रश्न और गहरा हो जाता है कि क्या हम राजतंत्र की सांस्कृतिक छाया को लोकतंत्र पर अनावश्यक रूप से थोप रहे हैं?
प्रश्न केवल एक छड़ी या प्रतीक का नहीं है, बल्कि उस सोच का है, जिसे हम आने वाली पीढ़ियों को सौंप रहे हैं। यदि हम लोकतंत्र को केवल संवैधानिक संरचना तक सीमित मानते हैं और मानसिकता में राजतंत्र के प्रतीकों को प्रश्रय देते हैं, तो हम अनजाने में जनता की सर्वोच्चता की भावना को कमज़ोर कर रहे होते हैं।
सत्य यही है कि लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए सिर्फ चुनाव कराना काफी नहीं, बल्कि उसके मूल्यों, प्रतीकों और प्रतीकात्मक संस्कृति को भी लोकतांत्रिक बनाना आवश्यक है। हमें यह समझना होगा कि राजतंत्र की परंपराएँ जितनी भी गौरवशाली रही हों, लोकतंत्र की भावना में उनका स्थान केवल ऐतिहासिक संदर्भ तक ही सीमित होना चाहिए — न कि संसद की वर्तमान दीवारों में।
इसलिए, आज जब हम ‘लोकतंत्र का मंदिर’ कहे जाने वाले संसद भवन में राजतंत्रीय प्रतीकों का प्रयोग करते हैं, तो हमें सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए कि क्या हम अनजाने में लोकतंत्र की आत्मा को पीछे तो नहीं छोड़ रहे हैं?
उपसंहार:
लोकतंत्र केवल शासन प्रणाली नहीं, यह एक मानसिकता, संस्कृति और जिम्मेदारी का नाम है। यदि हम सच में लोकतंत्र को पूजते हैं, तो हमें राजतंत्र की संस्कृति का गुणगान नहीं, बल्कि आलोचनात्मक मूल्यांकन करना चाहिए। तभी हम एक सजग, विवेकशील और सशक्त लोकतंत्र की ओर बढ़ सकते हैं।
