आज की इस कड़ी में हम जेएन टाटा, उनका का सपना और संकल्प से जुड़ी कहानी को लेकर आपके सामने आ रहे हैं.
जमशेदपुर। टाटा एक नाम नहीं, एक ब्रांड नहीं बल्कि यह देश की धड़कन है. आज अगर अपना देश आर्थिक रूप से अन्य विकसित देशों के मुकाबले ताकत के साथ सीना ताने खड़ा दिखता है, तो उसमें टाटा का योगदान सर्वोच्च है. जहां एक ओर देश की आजादी में स्वतंत्रता सेनानी अलग अलग तरह से अपनी लड़ाई को लड़ रहे थे, वहीं एक युवा सोच वाले वृद्ध ने देश को आर्थिक सबलता प्रदान करने का सपना देखा. सपना ऐसा जो खुली आंखों से देखा गया और उसे सच करने का संकल्प इतना अडिग कि उसे पूरा करने में पूरी कायनात उसके साथ खड़ी हो गई. यह सपना कोई और नहीं बल्कि टाटा ग्रुप और टाटा स्टील के संस्थापक जेएन टाटा ने देखा था. इस 3 मार्च को जेएन टाटा की 185वीं जयंती है. टाटा की सबसे पुराने और मजबूत स्तंभ टाटा स्टील अपने संस्थापक की जयंती को एक महोत्सव के तौर पर आयोजित करती है. आज की इस कड़ी में हम जेएन टाटा, उनका का सपना और संकल्प से जुड़ी कहानी को लेकर आपके सामने आ रहे हैं. पढ़िए पूरी रिपोर्ट
जेएन टाटा : जन्म 3 मार्च 1839 – मृत्यु 19 मई 1904
एक व्यक्ति जिसकी इतनी विशाल आकांक्षाएं थीं, एक आदमी जिसके पास इतनी तेज दृष्टि थी कि वह अपने जीवन से परे भविष्य को देख सकता था. उनके कारण ही भारत एक व्यापारिक राष्ट्र से एक औद्योगिक राष्ट्र में परिवर्तित हुआ. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कई लोग उन्हें “आधुनिक भारतीय उद्योग का जनक” मानते हैं – वह व्यक्ति जिसने भविष्य की भविष्यवाणी की थी. ”इतिहास हमें बताता है कि शक्तिशाली लोग शक्तिशाली स्थानों से आते हैं. इतिहास गलत था. ”शक्तिशाली लोग स्थानों को शक्तिशाली बनाते हैं”. इसी का नाम है जमशेदजी नुसरवान जी टाटा जिन्हे जेएन टाटा के नाम से जानते हैं. जिन्हें “भारत के औद्योगीकरण के जनक” के तौर पर भी याद किया जाता है. जिन्होंने भारत में उद्योगों की श्रृंखला की स्थापना की तो स्टील कंपनी नींव रखी.
जमशेदजी टाटा, जिनका जन्म 3 मार्च, 1839 को नवसारी, गुजरात में हुआ था, 17 वर्षीय पारसी पुजारी नुसरवानजी रतन टाटा और उनकी पत्नी जीवनबाई कावसजी टाटा के पुत्र थे. नुसेरवानजी पारसी पारसी पुजारी परिवार के पहले भारतीय उद्यमियों में से थे. गुजराती उनकी मातृभाषा थी. उन्होंने परिवार के पहले भारतीय संस्थापक बनकर पारिवारिक परंपरा को चुनौती दी. उन्होंने मुंबई में एक निर्यात व्यापार कंपनी की स्थापना की.
21 हजार रुपए में शुरू किया अपना पहला व्यवसाय
वह दौर बहुत कठिन था. अंग्रेज अत्यंत बर्बरता से 1857 की क्रान्ति को कुचलने में सफल हुए थे. 29 साल की आयु तक जमशेदजी अपने पिताजी के साथ ही काम करते रहे. 1868 में उन्होंने 21,000 रुपयों के साथ अपना खुद का व्यवसाय शुरू किया. सबसे पहले उन्होंने एक दिवालिया तेल कारखाना खरीदा और उसे एक रुई के कारखाने में तब्दील कर दिया और उसका नाम बदल कर रखा एलेक्जेंडर मिल (Alexender Mill). दो साल बाद उन्होंने इसे खासे मुनाफे के साथ बेच दिया. इस पैसे के साथ उन्होंने नागपुर में 1874 में एक रुई का कारखाना लगाया. महारानी विक्टोरिया ने उन्हीं दिनों भारत की रानी का खिताब हासिल किया था और जमशेदजी ने भी वक्त को समझते हुए कारखाने का नाम इम्प्रेस्स मिल (Empress Mill) (Empress का मतलब ‘महारानी’) रखा.
1869 तक टाटा परिवार को छोटा व्यापारी समझा जाता था. इसे मुंबई व्यवसाय जगत में पीछे की बेंच पर बैठने वाला माना जाता था. जमशेदजी ने इस भ्रम को तोड़ते हुए एंप्रेस मिल बनाई, जो उनकी पहली बड़ी औद्योगिक कंपनी थी. जब जमशेदजी ने नागपुर में कॉटन मिल बनाने की घोषणा के उस वक्त मुंबई को टेक्सटाइल नगरी कहा जाता था. अधिकांश कॉटन मिल्स मुंबई में ही थी. इसलिए जब जमशेदजी ने नागपुर को चुना तो उनकी बड़ी आलोचना हुई एक मारवाड़ी फैन फाइनेंसर ने एंप्रेस मिल में निवेश के बारे में कहा था, यह तो जमीन खोदकर उसमें सोना दबाने जैसा है. दरअसल जमशेदजी ने नागपुर को तीन कारणों से चुना था. कपास का उत्पादन आसपास के इलाकों में होता था रेलवे जंक्शन समीप था और पानी, ईंधन की प्रचुर अपूर्ति थी.
अपने कारोबारी जीवन की शुरुआत में ही जमशेदजी को एक गंभीर आर्थिक झटका लगा. कारोबारी साझेदारी प्रेम चंद्र राय का कर्ज उतारने के लिए उन्हें अपना मकान और जमीन जायजा बेचनी पड़ी. इसके अलावा 1887 में खरीदी स्वदेशी मिल्स में उनका पूरा पैसा लग गया, और वे आर्थिक संकटों में घिर गए. लेकिन टाटा ने हिम्मत नहीं हारी और अंततः सभी संकटों से उबर गए.
स्टील कंपनी बनाने का सपना देखा और उसकी मजबूत नींव रख डाली
औद्योगिक विकास कार्यों में जमशेदजी यहीं नहीं रूके. देश के सफल औद्योगीकरण के लिए उन्होंने इस्पात कारखानों की स्थापना की महत्त्वपूर्ण योजना बनायी. ऐसे स्थानों की खोज की जहां लोहे की खदानों के साथ कोयला और पानी सुविधा प्राप्त हो सके. सिंहभूम जिला के घनघोर पहाड़ी और जंगलों के बीच वह स्थान खोज निकाला. हालांकि कंपनी के निर्माण के पहले ही उनका 19 मई 1904 में जर्मनी में निधन हो गया. हालांकि वे टाटा स्टील (तक टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी) की स्थापना को लेकर एक मजबूत आधार स्तंभ रख चुके थे जो उनकी अगली पीढ़ी के लिए काफी सहयोगी साबित हुई. जेएन टाटा और उनके साथी, सहयोगियों ने कालीमाटी और साकची का चयन स्टील कारखाने के लिए कर चुके थे. बस कंपनी निर्माण का कार्य ही बाकी रह गया था. उनके बाद सर दोराबजी टाटा और अन्य सहयोगियों ने मिल कर 1907 में टाटा स्टील का निर्माण कार्य किया और 1911 में उत्पादन आरंभ हो गया।