लेखक …. सुभाष शाह…….
1857 का वर्ष भारत के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ लेकर आया। यह केवल एक सैनिक विद्रोह नहीं था, बल्कि भारतीय समाज, संस्कृति और अर्थव्यवस्था पर हो रहे औपनिवेशिक आक्रमण के खिलाफ एक सशक्त प्रतिरोध भी था। इस विद्रोह की जड़ें गहरी थीं — आर्थिक शोषण, सांस्कृतिक अपमान और धार्मिक हस्तक्षेप की पीड़ा से उपजा आक्रोश, जिसने जन-जन को आंदोलित कर दिया।
1857 की पृष्ठभूमि: एक उबलता भारत
सामंती भारत : उस समय भारत एक औपनिवेशिक और सामंती ढांचे में जकड़ा हुआ था। राजा-महाराजा अपनी सत्ता के लिए अंग्रेजों के गुलाम बन चुके थे।
औपनिवेशिक दमन : ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यापार की आड़ में भारत के कुटीर उद्योगों, दस्तकारों और श्रमिकों का गला घोंट दिया। साथ ही, कृषकों से लगान के नाम पर लूट-पाट की गई।
धार्मिक हस्तक्षेप : ईसाई मिशनरियों का प्रसार और धर्मांतरण की कोशिशें भारतीय जनमानस की धार्मिक और सांस्कृतिक अस्मिता पर चोट कर रही थीं।
इन सभी कारणों ने 1857 के विद्रोह के बीज बोए, जिसमें सैन्य असंतोष सिर्फ एक चिंगारी थी।
राजा-महाराजाओं की भूमिका
कुछ शासक अंग्रेजों के साथ थे, ताकि उनकी सत्ता बची रहे।
कुछ विरोध में थे, लेकिन उनके स्वार्थ प्रमुख थे — वे स्वतंत्र भारत नहीं, बल्कि अपने राज्य की पुनः स्थापना चाहते थे।
चर्बी वाले कारतूस की अफवाह को जनभावना भड़काने के लिए इस्तेमाल किया गया, जिससे विद्रोह को धार्मिक रंग मिला — हिंदू और मुस्लिम सैनिक दोनों आहत हुए।
धार्मिक संगठन और उनका राजनीतिक उपयोग
स्वतंत्रता आंदोलन के बाद भारतीय राजनीति में दो धार्मिक संगठन उभरकर सामने आए:
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS, 1925): इसका उद्देश्य हिंदू संस्कृति और पहचान की रक्षा था। यह एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में आरंभ हुआ, लेकिन कालांतर में राजनीति में इसकी भूमिका बढ़ी।
जमात-ए-इस्लामी (1941): एक इस्लामी संगठन जिसने शरीया पर आधारित राज्य व्यवस्था की वकालत की। इसकी भूमिका भारत विभाजन और पाकिस्तान निर्माण से जुड़ी रही।
इन दोनों संगठनों का विभिन्न समयों पर राजनीतिक दलों, राजा-महाराजाओं और सत्ताधारियों द्वारा उपयोग किया गया — कभी दोस्त के रूप में, कभी दुश्मन के रूप में।
धर्म आधारित राजनीति और भारतीय संविधान
आज की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि —
“हमें अब हिंदू-मुस्लिम करना छोड़ना होगा।”
इस वाक्य को अक्सर कुछ लोग ‘भ्रामक या राजनीतिक चाल’ कहते हैं, लेकिन वास्तव में यह भारतीय संविधान की मूल आत्मा है।
भारत का संविधान कहता है:
“हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए…”
लेकिन इसके विपरीत:
RSS जैसे संगठन “रामराज्य” की कल्पना करते हैं जो एक प्रकार का धार्मिक-राजतंत्र है।
जमात-ए-इस्लामी “इस्लामिक शरीया स्टेट” की बात करता है, जो मध्यकालीन कबीलाई अवधारणा पर आधारित है।
दोनों ही विचारधाराएं आधुनिक लोकतांत्रिक गणराज्य की भावना से टकराती हैं।
निष्कर्ष : रास्ता क्या है?
- हमें इतिहास को समझना होगा, लेकिन उसका सदुपयोग करना होगा, दुरुपयोग नहीं।
- धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों को पहचाना होगा, चाहे वे किसी भी संगठन से हों।
- भारत को यदि सही अर्थों में मजबूत बनाना है तो वह संविधान की मूल भावना — समानता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र — से ही संभव है।
अंतिम बात
भारत न तो रामराज्य है, न इस्लामिक स्टेट। भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है — सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार और कर्तव्य वाला राष्ट्र।
