चाणक्य शाह……
नेमरा गांव, जो चारों ओर छोटी- बड़ी पहाड़ियों की तलहटी, धान के खेतों, टेका नाला और घनघोर जंगल से घिरा है, वहां शिबू सोरेन का अंतिम संस्कार आदिवासी रीति-रिवाज और राजकीय सम्मान के साथ हुआ। जैसे ही उनका पार्थिव शरीर अंत्येष्टि स्थल पर पहुंचा, झमाझम बारिश शुरू हो गई, मानो प्रकृति भी अपने पुत्र को श्रद्धांजलि देने के आतुर हो…..
नेमरा गांव की उस मिट्टी में जब गुरुजी पंचतत्व में विलीन हुए, तो वहां उपस्थित हर आंख नम थी, लेकिन गर्व से भरी हुई भी, कि उन्होंने ऐसे महामानव को जन्म दिया जिसने एक पूरे राज्य को दिशा दी,
नेमरा गांव के उस छोटे से परिवार में जन्मे दिशाेम गुरु शिबू सोरेन जहां गरीबी तो था, भूख तो था लेकिन हिम्मत गरीबी और भूख से कहीं ज्यादा था, अब जरा सोचिए पढ़ने लिखने और कुछ कर गुजरने के उम्र में ही किसी के ऊपर के अगर पिता का साया उठ जाए तो उस दिल पर क्या बीतेगा, लेकिन गुरुजी ने दिल पर पत्थर रख हार नहीं मानी और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा, अविभाजित बिहार यानी आज के झारखंड में महाजनी प्रथा अपने चरम पर था और साल 1957 में उनके पिता की हत्या कर दी गई। इसके बाद उन्होंने महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। गुरूजी के मुहिम की गूंज ओडिशा, पश्चिम बंगाल और बिहार तक पहुंचने लगा। गुरूजी ने आदिवासी समाज की मुख्य परेशानी को समझा और उनका हल निकालने में जुट गए। और आज हमर सुनर झारखंड गुरुजी के त्याग, तपस्या और संघर्ष का निशानी है जो स्वर्ण अक्षरों में इतिहास के पन्नों में लिखा जाएगा।
झारखंड की राजनीति के पितामह, जनजातीय समाज की अमिट आवाज और झारखंड आंदोलन के पुरोधा दिशोम गुरु शिबू सोरेन को उनके पैतृक गांव नेमरा में पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी गई। हजारों की संख्या में लोग इस महान जननायक को अंतिम बार श्रद्धांजलि देने के लिए उमड़े।
दिशोम गुरु शिबू सोरेन का निधन झारखंड की राजनीति में एक युग का अंत है। उनका योगदान केवल राज्य निर्माण तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उन्होंने सदियों से उपेक्षित जनजातीय समाज को अधिकार, पहचान और गरिमा दिलाने का जो कार्य किया, वह इतिहास के पन्नों में हमेशा स्वर्ण अक्षरों में दर्ज रहेगा।
