जमशेदपुर : वर्ष 2000 में जब झारखंड बिहार से अलग हुआ, तो यह केवल एक राजनीतिक घटना नहीं थी, बल्कि एक लंबा सामाजिक आंदोलन अपने मुकाम तक पहुँचा था। दिशोम गुरु शिबू सोरेन, स्वर्गीय निर्मल महतो, चंपई सोरेन, स्वर्गीय सुधीर महतो, रामदास सोरेन जैसे नेताओं की अगुवाई में यह लड़ाई लड़ी गई थी। ये वे चेहरे थे जिन्होंने जंगल, जमीन और जल के अधिकार की लड़ाई लड़ी थी। आदिवासी अस्मिता और मूलवासियों के हक़ को लेकर उन्होंने उस व्यवस्था से टक्कर ली, जो उन्हें हाशिए पर रख रही थी।
तत्कालीन बिहार सरकार की उपेक्षा, सुविधाओं का अभाव और प्रशासनिक उदासीनता के खिलाफ झारखंड की जनता ने आवाज़ बुलंद की थी। आंदोलन का स्वरूप इतना व्यापक था कि शिबू सोरेन के एक आह्वान पर पूरा राज्य ठहर जाता था। जनता जान देने को तैयार थी, क्योंकि उसे उम्मीद थी कि अलग राज्य बनते ही जीवन में बदलाव आएगा, विकास होगा, और सरकार उसकी होगी।

लेकिन आज जब झारखंड को बने पच्चीस साल हो चुके हैं, तब यह सवाल तेज़ी से उठता है कि क्या वह सपना पूरा हुआ, जिसके लिए यह राज्य बना था? हाल ही में दिशोम गुरु शिबू सोरेन के निधन ने इस सवाल को और भी तीखा बना दिया है। उन्होंने न सिर्फ इस राज्य की कल्पना की थी, बल्कि उसे आकार देने में अपना पूरा जीवन झोंक दिया। लेकिन अंततः जब उन्हें स्वास्थ्य संकट आया, तब उन्हें भी इलाज के लिए झारखंड से बाहर जाना पड़ा। क्या यही नियति झारखंड जैसे राज्य की होनी चाहिए, जहां के निर्माता को भी अपने आखिरी वक्त में धरती माँ की गोद में स्वास्थ्य सुविधा नसीब न हो?
शिबू सोरेन ही नहीं, स्वर्गीय सुधीर महतो, जगन्नाथ महतो, और वर्तमान शिक्षा मंत्री रामदास सोरेन तक को इलाज के लिए दिल्ली, चेन्नई या अन्य महानगरों की शरण लेनी पड़ी। ये वो नेता हैं जिनके पास सत्ता, संसाधन और पहुंच थी। अगर ये लोग झारखंड में इलाज नहीं पा सके, तो एक आम आदमी की स्थिति की कल्पना मात्र से ही रूह कांप उठती है। क्या यह सोचकर ही झारखंड बना था कि बड़े नेता बाहर जाकर इलाज कराएं और गरीब झारखंडी सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए तड़पते रहें?

गुरुजी के निधन की सूचना मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने खुद दी और कहा कि “मैं शून्य हो गया हूँ।” लेकिन सवाल यह है कि क्या यह शून्यता सिर्फ उनके व्यक्तिगत जीवन में आई है या यह पूरे झारखंड की विफलता का प्रतीक बन चुकी है? आज जब पूरा राज्य उन्हें श्रद्धांजलि दे रहा है, तब यह आत्ममंथन का भी समय है। एक ऐसा नेता, जो इस राज्य का निर्माता था, वह अपनी ही भूमि पर इलाज नहीं पा सका। क्या वाकई यह वह झारखंड है जिसके लिए आंदोलन हुआ था ?
राज्य का निर्माण केवल सीमाएं खींचने से नहीं होता, राज्य तब बनता है जब उसकी जनता को गरिमा, अधिकार और सुविधा मिले। अगर आज भी झारखंड के गांवों में प्रसव के लिए महिलाएं किलोमीटरों चलती हैं, बच्चे स्कूलों के अभाव में अशिक्षित रह जाते हैं, और इलाज के नाम पर लोग दम तोड़ देते हैं, तो यह किसी स्वतंत्र राज्य की नहीं, एक असफल प्रयोग की तस्वीर है।

आज शिबू सोरेन नहीं हैं। उन्होंने एक विचार को जन्म दिया था, लेकिन उस विचार को साकार करने की जिम्मेदारी हम सब की है। श्रद्धांजलि केवल पुष्प अर्पण से नहीं होती, सच्ची श्रद्धांजलि होगी जब झारखंड को वैसा बनाया जाए, जैसा उन्होंने देखा था—एक ऐसा झारखंड जहां उसके लोग सम्मान, सुविधा और सुरक्षा के साथ जी सकें।
