छठ महापर्व शास्त्र एवं लोक-परंपरा का त्योहार है। इस पर्व से पौराणिक मान्यताएं जुड़ी हुई हैं।
छठ पर्व में भगवान सूर्य की उपासना के साथ-साथ स्कंद की माता षष्ठिका देवी एवं स्कंद की पत्नी देवसेना, इन तीनों की पूजा का विशेष महत्व है। कहते हैं कि इसी दिन कुमार कार्तिकेय देवताओं के सेनापति के रूप में प्रतिष्ठित हुए थे। अतः भगवान सूर्य के साथ-साथ इन सभी देव-देवियों के नाम इस पर्व के साथ जुड़ गये हैं और कालांतर में इसका स्वरूप बृहत हो गया है।
धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में इसे स्कंदषष्ठी, विवस्वत-षष्ठी, इन दोनों नामों से कहा गया है।
हेमाद्रि (१३वीं शती) ने अपने ग्रंथ चतुर्वर्ग-चिंतामणि में प्रत्येक मास की सप्तमी तिथि को भगवान सूर्य की उपासना का वर्णन किया है तथा उनकी महिमा का वर्णन अलग-अलग पुराणों के वचनों के द्वारा प्रतिपादित किया है। हेमाद्रि के अनुसार, प्रत्येक मास में भगवान सूर्य के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है-जैसे माघ में वरुण, फाल्गुन में सूर्य, चैत्र में अंशुमाली, वैशाख में धाता, ज्येष्ठ में इंद्र, आषाढ़ एवं श्रावण मास में रवि, भाद्र में भग, आश्विन में पर्जन्य, कार्तिक में त्वष्टा, अग्रहण में मित्र पौष में विष्णु के रूप में भगवान सूर्य की उपासना की जाती है।(हेमाद्रि, व्रतखंड, अध्याय ११)।
इस प्रकार भगवान सूर्य की उपासना के साथ सप्तमी तिथि का गहरा संबंध रहा है। इसी अध्याय में आगे लिखा गया है कि यह वार्षिक व्रत कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि को आरंभ करना चाहिए। इस प्रकार, हेमाद्रि के अनुसार, वर्ष भर के सप्तमी व्रतों में सबसे महत्वपूर्ण कार्तिक शुक्ल सप्तमी को माना गया है। वर्तमान छठ का प्रारंभिक रूप हमें यहां मिलता है।
लगभग इसी काल में मिथिला के धर्मशास्त्री चण्डेश्वर ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन भगवान कार्तिकेय को अर्घ्य देने का विधान किया है तथा सप्तमी के दिन भगवान भास्कर की पूजा का विधान किया है। यहां सप्तमी की पूजा का विधान करते हुए उन्होंने भविष्य-पुराण को उद्धृत किया है कि पंचमी तिथि को एकभुक्त करें, यानी एकबार ही भोजन करें, षष्ठी को निराहार रहें तथा सप्तमी को भगवान भास्कर की पूजा करें, जिससे सूर्यलोक की प्राप्ति, स्वर्ग की प्राप्ति, जीवन पर्यंत पुत्र-पौत्र आदि के साथ धन-धान्य की प्राप्ति आदि होती है। छठ पर्व के आधुनिक रूप भी इसी प्रकार है। अतः हम कह सकते हैं कि १३०० ईं के आसपास भी इस व्रत की परम्परा थी।कार्तिक शुक्ल षष्ठी एवं सप्तमी तिथि को पारस्परिक रूप से विवस्वत षष्ठी का पर्व मनाया जाता है। इसमें प्रधान रूप से संज्ञा सहित सूर्य की पूजा है। पौराणिक परंपरा में संज्ञा को सूर्य की पत्नी कहा गया है। रुद्रधर (15वीं शती) के अनुसार, इस पर्व की कथा स्कंदपुराण से ली गयी है। इस कथा में दुःख एवं रोग नाश के लिए सूर्य का व्रत करने का उल्लेख किया गया है-
भास्करस्य व्रतं त्वेकं यूयं कुरुत सत्तमाः।
सर्वेषां दुःखनाशो हि भवेत्तस्य प्रसादतः।।24।।
आगे इस व्रत का विधान बतलाते हुए कहा गया है कि पंचमी तिथि को एकबार ही भोजन कर संयमपूर्वक दुष्ट वचन, क्रोध, आदि का त्याग करें। अगले दिन षष्ठी तिथि को निराहार रहकर संध्या में नदी के तट पर जाकर धूप, दीप, घी में पकाये हुए पकवान आदि से भगवान भास्कर की आराधना कर उन्हें अर्घ्य दें। यहां अर्घ्य-मंत्र इस प्रकार कहे गये हैं।
अर्घ्य देने का मंत्र
नमोऽस्तु सूर्याय सहस्रभानवे नमोऽस्तु वैश्वानर जातवेदसे।
त्वमेव चार्घ्यं प्रतिगृह्ण गृह्ण देवाधिदेवाय नमो नमस्ते।।
नमो भगवते तुभ्यं नमस्ते जातवेदसे।
दत्तमर्घ्यं मया भानो त्वं गृहाण नमोऽस्तु ते।।
एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशि जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर।।
एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशि जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या संज्ञयासहित प्रभो।।
यहां रात्रि में जागरण कर पुनः प्रातःकाल सूर्य की आराधना कर अर्घ्य देने का विधान किया गया है।
वर्तमान में खेमराज बेंकटेश्वर प्रेस मुंबई द्वारा प्रथम प्रकाशित तथा नाग प्रकाशन दिल्ली द्वारा पुनर्मुद्रित स्कंदपुराण में यह कथा उपलब्ध नहीं है।
इन्हीं छह कृतिकाओं का दूध एक साथ पीने के लिए उन्होंने अपना छह मुख बना लिया था। इसी से कार्तिकेय को षडानन, षड्वदन, षण्मुख अर्थात् छह मुँह वाला कहा जाता है।
यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि कृतिका नक्षत्र छह ताराओं का समूह भी है तथा स्कन्द-षष्ठी नाम से एक व्रत का उल्लेख भी है।
छठी का दूध बच्चे के जन्म के छठे दिन स्कंदमाता षष्ठी नाम से एक व्रत का उल्लेख भी है। बच्चे के जन्म के छठे दिन स्कंदमाता षष्ठी की पूजा भी प्राचीन काल से होती आयी है।
अतः सूर्य-पूजा तथा स्कंदमाता की पूजा की पृथक परंपरा एक साथ जुड़कर सूर्यपूजा में स्कंदषष्ठी समाहित हो गयी है; किन्तु लोक-संस्कृति में छठी मैया की अवधारणा सुरक्षित है।